7वीं सदी के प्रारम्भ होने पर, हर्षवर्धन (606-647 इसवी में) ने अपने भाई राज्यवर्धन की मृत्यु होने पर थानेश्वर व कन्नौज की राजगद्दी संभाली। 612 इसवी तक उत्तर में अपना साम्राज्य सुदृढ़ कर लिया।
620 इसवी में हर्षवर्धन ने दक्षिण में चालुक्य साम्राज्य, जिस पर उस समय पुलकेसन द्वितीय का शासन था, पर आक्रमण कर दिया परन्तु चालुक्य ने बहुत जबरदस्त प्रतिरोध किया तथा हर्षवर्धन की हार हो गई। हर्षवर्धन की धार्मिक सहष्णुता, प्रशासनिक दक्षता व राजनयिक संबंध बनाने की योग्यता जगजाहिर है। उसने चीन के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए व अपने राजदूत वहां भेजे, जिन्होने चीनी राजाओं के साथ विचारों का आदान-प्रदान किया तथा एक दूसरे के संबंध में अपनी जानकारी का विकास किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो उसके शासनकाल में भारत आया था ने, हर्षवर्धन के शासन के समय सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक स्थितियों का सजीव वर्णन किया है व हर्षवर्धन की प्रशंसा की है। हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत एक बार फिर केंद्रीय सर्वोच्च शक्ति से वंचित हो गया।
बादामी के चालुक्य
6ठवीं और 8ठवीं इसवी के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्य का प्रथम शासक पुलकेसन, 540 इसवी मे शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किया। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित की व अपने राज्य का और विस्तार किया।
कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय, चालुक्य साम्राज्य के महान शासकों में से एक था, उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्य किया। अपने लम्बे शासनकाल में उसने महाराष्ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भूभाग को जीत लिया, उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरूद्ध रक्षात्मक युद्ध लड़ना थी।
तथापि 642 इसवी में पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरूद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 इसवी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की जो राष्ट्र कूट कहलाया।
कांची के पल्लव
छठवीं सदी की अंतिम चौथाई में पल्लव राजा सिंहविष्णु शक्तिशाली हुआ तथा कृष्णा व कावेरी नदियों के बीच के क्षेत्र को जीत लिया। उसका पुत्र व उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रतिभाशाली व्यक्ति था, जो दुर्भाग्य से चालुक्य राजा पुलकेसन द्वितीय के हाथों परास्त होकर अपने राज्य के उत्तरी भाग को खो बैठा। परन्तु उसके पुत्र नरसिंह वर्मन प्रथम ने चालुक्य शक्ति का दमन किया। पल्लव राज्य नरसिंह वर्मन द्वितीय के शासनकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। वह अपनी स्थापत्य कला की उपलब्धियों के लिए प्रसिद्ध था, उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा उसके समय में कला व साहित्य फला-फूला। संस्कृत का महान विद्वान दानदिन उस के राजदरबार में था। तथापि उसकी मृत्यु के बाद पल्लव साम्राज्य की अवनति होती गई। समय के साथ-साथ यह मात्र स्थानीय कबीले की शक्ति के रूप में रह गया। आखिरकार चोल राजा ने 9वीं इसवी. के समापन के आस-पास पल्लव राजा अपराजित को परास्त कर उसका साम्राज्य हथिया लिया।
भारत के प्राचीन इतिहास ने, कई साम्राज्यों, जिन्होंने अपनी ऐसी बपौती पीछे छोड़ी है, जो भारत के स्वर्णिम इतिहास में अभी भी गूंज रही है, का उत्थान व पतन देखा है। 9वीं इसवी. के समाप्त होते-होते भारत का मध्यकालीन इतिहास पाला, सेना, प्रतिहार और राष्ट्र कूट आदि - आदि उत्थान से प्रारंभ होता है।
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