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Thursday 27 October 2016

मौद्रिक नीति का अवलोकन

मुख्य भाग: मौद्रिक नीति एक ऐसी नियामक नीति है जिसके तहत केंद्रीय बैंक (भारत के मामले में आरबीआई) पैसे की आपूर्ति सामान्य आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए करता है। भारत में मुद्रा की आपूर्ति भारतीय रिजर्व बैंक करता है । सिक्के, वित्त मंत्रालय द्वारा ढालवाये जाते हैं लेकिन उनकी आपूर्ति भी भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा की जाती है।  मौद्रिक नीति के मुख्य कारक हैं: नकद आरक्षित अनुपात, सांविधिक तरलता अनुपात, बैंक दर, रेपो दर, रिवर्स रेपो दर और खुले बाजार के परिचालन। 
चक्रवर्ती समिति ने इस बात पर पर जोर दिया कि भारत में मौद्रिक नीति के महत्वपूर्ण उद्देश्यों में कीमतों में स्थिरता,विकाससमानतासामाजिक न्यायनए मौद्रिक और वित्तीय संस्थानों को बढ़ावा देना शामिल हैं।
मौद्रिक नीति के कारक
मौद्रिक नीति के कारक दो प्रकार के होते हैं:
1. मात्रात्मक, सामान्य या अप्रत्यक्ष (सीआरआर एसएलआर, खुले बाजार परिचालन, बैंक दर, रेपो दर, रिवर्स रेपो दर)
2. गुणात्मक, चयनात्मक या प्रत्यक्ष (मार्जिन मनी में बदलाव, प्रत्यक्ष कार्रवाई, नैतिक दबाब)
इन दोनों तरीकों से बाजार में मुद्रा की आपूर्ति निर्धारित की जाती हैं।
दो प्रकार के उपकरणों में, पहला है श्रेणी बैंक दर में बदलाव,  जिसमें खुले बाजार का परिचालन और बदलते रिजर्व की आवश्यकता (नकद आरक्षित अनुपात, सांविधिक तरलता अनुपात) शामिल हैं। ये साधन वाणिज्यिक बैंकों के माध्यम से अर्थव्यवस्था में ऋण के समग्र स्तर को नियमित करते हैं। चयनात्मक ऋण नियंत्रण विशिष्ट प्रकार के क्रेडिट को नियंत्रित करता है।
 
Image Source: www.slideshare.net
Structure of Banking System in India:
Image Source:currentaffairs.site
सभी साधनों का उल्लेख इस प्रकार है:
A- बैंक दर नीति:
बैंक दर, वह दर है जिस पर केंद्रीय बैंक, वाणिज्यिक बैंकों को उधार देता हैं। केंद्रीय बैंक को जब यह लगता है कि मुद्रास्फीति लगातार बढ़ रही है, तो केंद्रीय बैंक दर को बढ़ा देता है और इस तरह केंद्रीय बैंक से उधार लेना महंगा हो जाता है। बैंक दर बढ़ने से वाणिज्यिक बैंक केंद्रीय बैंक (आरबीआई) से उधार लेना कम कर देते हैं।
वाणिज्यिक बैंकों, प्रतिक्रिया में, व्यापारियों को और उधारकर्ताओं को उधार देने के लिए व्याज दरों में वृद्धि कर देते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि वाणिज्यिक बैंकों से लोग उधार लेना कम कर देते हैं। ऋण के संकुचन से कीमतों में कमी आती है। इसके विपरीत, जब मुद्रास्फीति कम होती हैं, तो केंद्रीय बैंक व्याज दर को कम कर देती हैं जिससे वाणिज्यिक बैंकों  से उधार लेना सस्ता हो जाता है। इस स्थिति में व्यवसायियों को अधिक उधार लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। निवेश भी प्रोत्साहित होता है जो उत्पादन , रोजगार, आय और मांग को बढ़ाता है I इस तरह नीचे जा रही कीमतों पर विराम लगता है।
B- खुला बाजार परिचालन:
खुले बाजार के परिचालन के तहत देश के केंद्रीय बैंक द्वारा प्रतिभूतियों की बिक्री और खरीद मुद्रा बाजार में की जाती है। जब कीमतें बढ़ रही होती हैं तो उन्हें नियंत्रित करने के जरूरत होती है, ऐसे समय में केंद्रीय बैंक प्रतिभूतियों को बेचता हैं जिससे वाणिज्यिक बैंकों का रिजर्व कम हो जाता है और वे व्यापारियों या आम जनता को ज्यादा उधार देने की स्थिति में नहीं होते हैं।
इसके अलावा इसका निवेश पर नकारात्माक असर पडता है और कीमतों में वृद्धि पर रोक लग जाती है। इसके विपरीत जब अर्थव्यवस्था में मंदी का बोलबाला होता है तो , केंद्रीय बैंक प्रतिभूति खरीदता है। जिससे वाणिज्यिक बैंकों का मुद्रा भंडार बढ़ जाता है और वे व्यापारियों और आम जनता अधिक उधार देने की स्तिथि में होते हैं । इस क्रम में निवेश, उत्पादन, रोजगार, आय और मांग अर्थव्यवस्था में बढ़ जाता है, इस तरह कीमत में गिरावट थम जाती है।
c- रिजर्व अनुपात में परिवर्तन:
इस विधि के तहत सीआरआर और एसएलआर के दो मुख्य जमा अनुपात होते हैं, जो वाणिज्यिक बैंकों की निष्क्रिय शेष नकदी घटा देते हैं या बढ़ा देते हैं। हर बैंक को नियमानुसार अपने जमा का कुछ प्रतिशत रिजर्व फंड के रुप में रखना पड़ता है और साथ ही केंद्रीय बैंकों के साथ भी अपनी कुल जमा का एक निश्चित प्रतिशत रखने होता है। जब मुद्रास्फीति/कीमतें  बढ़ रही होती हैं, तो केंद्रीय बैंक आरक्षित अनुपात को बढ़ा देती हैं इस कारण वाणिज्यिक बैंकों को केंद्रीय बैंक के साथ और अधिक रिजर्व फंड रखने की आवश्यकता होती है। कम होते अपने रिजर्व भंडार की कारण और उधार देना कम कर देते हैं। निवेश, उत्पादन और रोजगार की मात्रा पर प्रतिकूल असर पड़ता है। इसके विपरीत स्थिति में, जब आरक्षित अनुपात कम हो जाता है, वाणिज्यिक बैंकों का भंडार बढ़ जाता है। इन हालातों में बैंक अधिक उधार देते हैं और आर्थिक गतिविधि अनूकुल होती है।
2. चयनात्मक ऋण नियंत्रण:
चयनात्मक ऋण नियंत्रण विशिष्ट प्रकार के ऋण को प्रभावित करने के लिए विशेष उद्देश्य के लिए किया  जाता है। अर्थव्यवस्था के भीतर सट्टा गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए ये बदलते लाभ की आवश्यकता होती हैं। जब अर्थव्यवस्था में विशेष क्षेत्रों में कुछ वस्तुओं में सट्टा गतिविधि तेज होती है और कीमतें बढ़ना शुरू हो जाती हैं, तब केंद्रीय बैंक मार्जिन आवश्यकता को और बढ़ा देता है जिससे कि बाजार में मुद्रा की पूर्ति को कम किया जा सके ।
A- मार्जिन मनी में परिवर्तन
इसका परिणाम यह होता है कि ऋण लेने वालों को निर्दिष्ट प्रतिभूतियों के खिलाफ ऋण में कम पैसा दिया जाता है। उदाहरण के लिए, 70% मार्जिन आवश्यकता को बढ़ाने का मतलब 10,000 रुपये के मूल्य की प्रतिभूतियों के बदले उनके मूल्य का 30% ऋण दिया जाएगा अर्थात् ऋण के रूप में केवल 3,000 रुपये।
B- नैतिक दबाब: इस विधि के तहत रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों से अर्थव्यवस्था में पैसे की आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिए आग्रह करता है।
भारत में मौद्रिक नीति के उद्देश्य
1. मूल्य स्थिरता: मूल्य स्थिरता का तात्पर्य आर्थिक विकास को बढ़ावा देने से है। इसका मुख्य उद्देश्य  विकास परियोजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल वातावरण बनाना और साथ ही उचित मूल्य स्थिरता को बनाए रखना। 
2बैंक ऋण का नियंत्रित विस्तार: यह भारतीय रिजर्व बैंक के महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है । बैंक ऋण का नियंत्रित विस्तार और मुख्य फोकस उत्पादन को प्रभावित किए बिना ऋण की आवश्कता पर विशेष ध्यान रखना है।
3. स्थिर निवेश का संवर्धन: इसका मुख्य उद्देश्य गैर जरूरी निवेश को रोकते हुए उत्पादक निवेश को बढ़ाना होता है।
4. निर्यात और खाद्यान्न खरीद संचालन के संवर्धन: मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य निर्यात को मजबूत करना और व्यापार की सुविधाओं को बढ़ाना। क्रम में निर्यात को बढ़ावा देने और व्यापार की सुविधा के लिए विशेष ध्यान देता है। यह मौद्रिक नीति का स्वतंत्र उद्देश्य है।
5. क्रेडिट का वांछित वितरण: मौद्रिक प्राधिकरण का मुख्य कार्य प्राथमिकता क्षेत्र और छोटे उधारकर्ताओं को ऋण आवंटन के निर्णय पर नियंत्रण रखना है। यह नीति प्राथमिकता वाले क्षेत्र और छोटे ऋण लेने वालों को ऋण का निश्चित प्रतिशत आवंटित करने के लिए किया जाता है।
6. क्रेडिट का समान वितरण: रिजर्व बैंक की नीति अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों और समाज के सभी लोगों को समान रुप से वितरण करना है।
7. दक्षता को बढ़ावा देना: यह एक अनिवार्य पहलू है, जहां केंद्रीय बैंक अधिक ध्यान देते हैं। यह वित्तीय प्रणाली में दक्षता बढ़ाने के लिए कोशिश करता है और ऋण वितरण प्रणाली के परिचालन में कटौती करता है, ऐसे में ब्याज दरों की ढील के रूप में संरचनात्मक परिवर्तनों को शामिल करने के लिए ब्याज दरों में ढील, ऋण वितरण प्रणाली के परिचालन में सहजता और मुद्रा बाजार में नए साधनों का आरंभ किया जाता है।
8. कठोरता को कम करना: भारतीय रिजर्व बैंक संचालन में लचीलापन लाने के लिए काफी स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश करता है। यह अधिक प्रतिस्पर्धी माहौल और विविधीकरण को प्रोत्साहित करता है। वित्तीय प्रणाली के संचालन में जब भी जहां भी आवश्यकता पड़ती है वहां यह अपना नियंत्रण रखता है।
निष्कर्ष:
अंत में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि देश के विकास में मौद्रिक नीति का कार्यान्वयन एक बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह द्विधारी तलवार की धार की तरह है, यदि बाजार में पैसे की जरूरत हो और पैसा नहीं है तो निवेशक प्रभावित होंगे (अर्थव्यवस्था में निवेश में गिरावट आएगी) और दूसरी तरफ अगर जरूरत से अधिक पैसे की आपूर्ति होगी तो गरीब वर्ग को प्रभावित होगा क्योंकि आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ जाएंगे। इसलिए इस नीति को बनाते समय नीति निर्माताओं को बहुत ही ज्यादा सावधान रहने की जरुरत है I

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